Sunday, July 31, 2011

पूनम दहिया की कविता










   दिशाओं के मृदंग
   बजने लगे ....
   इन्द्रधनुषी रंग
   सजने लगे
   धरा ने ओढ़ी
   चुनरिया धानी
   सावन आया संग
   ले, नयी जवानी
   महके फूल, भ्रमर इतराए
   मधुर गीत कोयल ने गाये
   झूलों कि लग गयी लम्बी कतारें
   नदी उफनती चली तोड़ किनारे
   मधुमास कलियों ने मनाया
   आसमां का दिल भी धरती पर आया
   शंख नाद सुन बादलों का ..
   मन के तार ...हो कर झंकृत
   देखो खुद ही ...सजने लगे 

Saturday, July 30, 2011

गीता पंडित की कवितायेँ

 १
 मूक मन के सूने-पथ में ...

 ....
 ...... 
 मन के पंछी
 को मनाने
 आज पल फिर गा रहा,
 
मूक    - मन केसूने  
  पथ में
 कौन है जो आ रहा  |


 कौन से हैं
 वेष और ये
 कौन सी हैं बोलियाँ,

 
क्यूँ नहीं
 आती हैं मिलने
 
मीत मन की टोलियाँ,


 मन की बगिया
 को सजाता  
 कौन फिर से भा रहा,
 मन के पंछी
 को मनाने
 आज पल फिर गा रहा  |


 नेह के
 मनके पिरोते
 
कर रहा मन साधना,

 
पीर है 
 अंतर में गहरी
 
कम ना पर आराधना,

 कौन है जो
 पीर में भी, 
 मन को बाँधे जा रहा,
 मन के पंछी
 को मनाने
 आज पल फिर गा रहा ।|
  .....


 २ 

 मैं हूं पथिक प्रेम पथ की ...
 
 ....
 ...... 

 है पूनम की
 रात अनोखी
 
मन की पायल भी छमके,
 
मन मेरा बन
 पाखी  डोले
 
पल में बिजुरिया सी दमके |

 दूर देश में 
 पिया बसे हैं               
 ओ पुरवाई ! लेकर आ, 
  फिर वंशी की
  धुन पर कोई
 
मीठा-मीठा गान सुना |

 मैं हूँ मीरा
 प्रीत से ही तो
 
मेरे मन में मधुबन है ,
 
ओ परदेसी
 बिना तुम्हारे
 
जीवन भी क्या जीवन है |

 अखियाँ तरस
 गयीं दर्शन को
 
अब तो मीते दरस दिखा ,
 
कहे गोपिका
 मुझको उधव !
 
ज्ञान का ना संदेश सिखा |

 मैं हूं पथिक
 प्रेम पथ की
 
दूजा पथ क्या जानूँ मैं ,
 
प्रेम में कटते
 रैन - दिवस
 
प्रेम ही ईश्वर मानूँ मैं |


 सुर एक हम
 सब में व्यापित
 
प्रेम उसकी अभिव्यक्ति है ,
 
प्रेम परस्पर
 करें सभी से
 
इससे बङी ना भक्ति है | |
  ........
 (गीता पंडित का कविता संग्रह - "मन तुम हरी दूब रहना" से साभार)
 

Sunday, July 24, 2011

दो ग़ज़ल : श्यामल सुमन

खूबसूरत ये जहाँ

दिन कटे जब ठीक से तो है इनायत ये जहाँ
और गर्दिश के दिनों में बस क़यामत ये जहाँ

रंग चश्मे का है कैसा देखते हैं किस तरह
बात लेकिन सच यही कि है मुहब्बत ये जहाँ

रोटियाँ भी जब मयस्सर हो नहीं आवाम को
और रौनक कुछ घरों में तो अदावत ये जहाँ

रात दिन कुछ सरफिरे जो बाँटते हैं खौफ को
जब करोड़ों दिल अमन के है सलामत ये जहाँ

क्या यहाँ पे खूबसूरत कौन अच्छे लोग हैं
चैन हो दिल में सुमन तो खूबसूरत ये जहाँ



बात वो लिखना ज़रा

भावना का जोश दिल में सीख लो रूकना  ज़राहो  
नजाकत वक्त की तो वक्त पे झुकना ज़रा

जो उठाते जिन्दगी में हर कदम को सोच कर
जिन्दगी आसान बनकर तब लगे अपना ज़रा

लोग तो मजबूर होकर मुस्कुराते आज कल
है सहज मुस्कान पाना क्यों कठिन कहना ज़रा



टूटते तो टूट जाएँ पर सपन जिन्दा रहे
जिन्दगी है तबतलक ही देख फिर सपना ज़रा


दूरियाँ अपनों से प्रायः गैर से नजदीकियाँ
स्वार्थ अपनापन में हो तो दूर ही रहना ज़रा

खेल शब्दों का नहीं अनुभूतियों के संग में
बात लोगों तक जो पहुंचे बात वो लिखना ज़रा

जिन्दगी से रूठ कर के क्या करे हासिल सुमन
अबतलक खुशियाँ मिली जो याद कर चलना ज़रा


Saturday, July 23, 2011

कविता 'किरण'

एक काम वाली बाई..जिसके बिना गृहिणियों की गृहस्थी अधूरी होती है.. उसकी अपनी भी कोई पीड़ा हो सकती है....एक अछूते विषय पर कुछ कहने की...उसकी संवेदना को व्यक्त करने की कोशिश करती हुई एक रचना प्रस्तुत है...

स्वेद नहीं आंसू से तर हूँ मेमसाब
घर के होते भी बेघर हूँ मेमसाब

मैं बाबुल के सर से उतरा बोझ हूँ
साजन के घर का खच्चर हूँ मेमसाब

घरवाले ने कब मुझको मानुस जाना
उसकी खातिर बस बिस्तर हूँ मेमसाब

आज पढ़ा कल फेंका कूड़ेदान में
फटा हुआ बासी पेपर हूँ मेमसाब

कभी कमाकर लाता न फूटी कौड़ी
कहता है धरती बंजर हूँ मेमसाब

उसकी दारु और दवा अपनी करते
बिक जाती चौराहे पर हूँ मेमसाब

आती -जाती खाती तानों के पत्थर

डरा हुआ शीशे का घर हूँ मेमसाब

अपनी और अपनों की भूख मिटाने को
खाती दर-दर की ठोकर हूँ मेमसाब

घर-घर झाड़ू-पोंछा-बर्तन करके भी
रह जाती भूखी अक्सर हूँ मेमसाब

कोई कहता धधे वाली औरत है
पी जाती खारे सागर हूँ मेमसाब

ऐसी- वैसी हूँ चाहे जैसी भी हूँ
नाकारा नर से बेहतर हूँ मेमसाब

Thursday, July 21, 2011

पूनम दहिया की दो-कवितायें

(1)
सजा के हसरतों का बाज़ार बैठी हूँ ,
बेचने को सदभावना तैयार बैठी हूँ
मुफ्त बेचती हूँ ,हंसी और ठिठोली
कौड़ी का दाम लेती हूँ ,बेचती हूँ मीठी बोली
खरीदने को कोई है नहीं ,पर बेचती हूँ समानता
...स्वार्थ भरे हाट में लिए मै प्यार बैठी हूँ
खरीददार नहीं कोई ,ये भी जानती हूँ मैं
बिकते हैं घृणा द्वेष ही ज्यादा मानती हूँ मै
सब लगा रहे है बोली बस झूठ और अहंकार की
मै ले के आशा भरे सपने फिर भी भरे बाज़ार बैठी हूँ
आओ लगाओ बोली की बेचती हूँ मीठी बोली
निश्चयों और निष्ठाओं की दुकान है मैंने खोली
भर भी ले मुट्ठियों में ,कि कहीं देर ना हो जाये
मैं खो के भी सब कुछ लुटाने को तैयार बैठी हूँ ....... 

(2)

ज़िंदगी कुछ यूँ हम बिताते चले गए
कभी वो रूठे हम से
कभी हम मनाते चले गए
दर्द था या यादें थी तेरी
हम तो बस आंसूं बहते चले गए
दूर थी मंजिल मेरी
और थके से थे कदम
फिर भी देने साथ तेरा
कन्धों को मिलते चले गए
ज़ख्म तो गहरे थे
पर फिर भी हम को आस थी
हर घडी देती थी आहट ,
,अनबुझी हर एक प्यास थी
और तेरे आने की धुन में
सी के अपने होठों को
सीख लिया हमने भी देखो जीना
और बिना कहे सुने अपने जख्मों को सीना
हम करते रहे इंतजार यूँ ही की आओगे कभी
और बेखबर से तुम बस दिल को सताते चले गए
ज़िंदगी हम ....

Wednesday, July 20, 2011

बेकल है आज दुनिया : श्यामल सुमन

 

कैसी अजीब दुनिया इन्सान के लिए
महफूज अब मुकम्मल हैवान के लिए
कातिल जो बेगुनाह सा जीते हैं शहर में
इन्सान कौन चुनता सम्मान के लिए
मिलते हैं लोग जितने चेहरे पे शिकन है
आँखें  तरस गयीं  हैं मुस्कान  के लिए
पानी ख़तम हुआ है लोगों की आँख का
बेकल है आज दुनिया ईमान के लिए
किस आईने  से  देखूँ   हालात आज के  
कुछ तो सुमन से कह दो संधान के लिए

Monday, July 18, 2011

यादगार शाम : संजय मिश्रा 'हबीब'


 
 याद है मुझे
 गोधुली का खुशनुमा माहौल
 अधखिली कलियों को
 गा गा कर छेड़ते
 शरारती भंवरे,
 और जाने शर्म से
 या परेशान होकर
 इधर उधर डोलती कलियाँ....

 सुदूर दृगसीमा तक फैले 
 हरे पीले लहलहाते खेत.
 छन छन करती, खुशबू उडाती
 धान की स्वर्णिम बालियाँ...

 नीडों की ओर लौटते
 नन्हें नन्हें पक्षियों की
 लुभावनी कतारें,
 निकट ही
 पनघट पर महकती
 ग्राम्य गीतों की अल्हड बहारें...

 आम्र वृक्ष तले
 मंत्रमुग्ध अधलेटा सा मैं,
 और धीरे धीरे गुनगुनाती
 मेरे बालों में कंघी सी करती तुम....

 आह! सचमुच!!
 कितनी मधुर शाम थी वह,
 मेरे प्यारे से गाँव की प्यारी बयार
 मैं नहीं भुला सकता तुम्हें....
 कभी नहीं....!!!

Sunday, July 17, 2011

"विश्वगाथा" (शब्द मंगल) का नम्र निवेदन और रंजना फतेपुरकर की कविता- 'सीप का मोती'


 "विश्वगाथा के सभी दोस्तों,
 सुप्रभात... बड़े खेद के साथ कहना पड़ता हैं कि  "विश्वगाथा" पिछले कुछ दिनों से हैक हो गया था |  भरसक कोशिश के बावजूद कुछ नहीं हो पाया | ऐसे समय हमारे सह सम्पादक श्री नरेन्द्र व्यास जी भी विशेष  जिम्मेदारियों के बावजूद पूर्ण सहयोग देते रहे हैं, यही खुशी हैं |  
"विश्वगाथा" का बड़ा परीवार हैं, उन सभी को एक कष्ट दे रहा हूँ | अब "विश्वगाथा" का नया संस्करण "शब्द मंगल" के नाम से आप तक पहुंचा रहा हूँ | उम्मींद हैं कि आप इस कष्ट को भी झेल लेंगे | मगर आप सभी का स्नेह अब भी बना रहेगा |  
जीवन के राह में जब आप सही गति और सही मार्ग पर भी चलने लगते हैं तो भी अवरोध आयेंगे ही | हमने तो अपनी मस्ती में रहकर उसी सही मार्ग पर अग्रेसर होना हैं |  आप सभी के आशीर्वाद और स्नेह के कच्चे धागे से बंधा हूँ और मैं कभी भी मोक्ष नहीं चाहता...आपका अपना, - पंकज त्रिवेदी


सागर की मचलती लहरें
अगर चाँद को छू जाएँ
या कोई भीगी सी याद
तुम्हारी आँखों में आंसू
बन छलक जाये
रख देंगे उन आसुओं को
सीप में संजो कर 
ताकि आंसू तुम्हारे
प्यार के मोतियों में बदल जाएँ
चन्दन सी महक कोई
अगर साँसों को छू जाये
मोरपंखों से झरते रंग
अगर आँचल भिगो जाएँ
रख देंगे उन रंगों को
पलकों में संजोकर
ताकि उन रंगों से
तुम्हारे जीवन में
इन्द्रधनुष छलक जाये

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संपर्क : ३ उत्कर्ष विहार, मानिशपुरी, इंदौर                                          मो 9893034331