Wednesday, August 17, 2011

भावना वैदेही की कविता

पढ़ लो प्रिय, मन की भाषा /
मुझसे कुछ ,न  कहा जाता //

जाने कैसा मौन लिए ,
बेसुध मन अकुलाता है /
शीत -निशा ढलते-ढलते
पागलपन बढ़ जाता है //

आँखें सिन्धु सरीखी हैं ;
तुम बिन मन-घट,चिर प्यासा /
नयन नीर स्वच्छंद  हुआ
मुझसे अब न सहा जाता ///

यह आवेग नहीं थमता
रह रह भीतर ज्वार उठे /
विवश विरह में जीती हूँ
तपता  तन ,अंगार उठे //

योग ध्यान सब हर लेती ,
सुखद मिलन की अभिलाषा /
बढती पीर ,दुखाये मन ,
मुझसे अब न रहा जाता //

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