Sunday, August 21, 2011

समकालीन हिंदी साहित्य की पाक्षिक वेब पत्रिका

पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्णा के जन्मदिन पर आप सभी को हार्दिक बधाई | ईस पावन पर्वोत्सव पर आप सभी के लिए हम एक समकालीन हिंदी साहित्य की पाक्षिक वेब पत्रिका शुरू कर रहे हैं | ईस रूप में यह एक ऐसा मंच है जहां गद्य-पद्य में हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार, उत्थान के साथ-साथ इसका मुख्य उद्देश्य समकालीन हिंदी साहित्य को विश्व साहित्य की तुलना में समृद्ध करना भी है. तो आईये आप और हम मिलकर अपने हिंदी साहित्य को उस मुक़ाम तक ले जाएँ..... आज सुबह 10.15 बजे से यह पत्रिका आपको समर्पित होगी |                                                       * पंकज त्रिवेदी -नरेन्द्र व्यास
(आखर कलश, विश्वगाथा और शब्द मंगल)
www.nawya.in
 
 

Wednesday, August 17, 2011

भावना वैदेही की कविता

पढ़ लो प्रिय, मन की भाषा /
मुझसे कुछ ,न  कहा जाता //

जाने कैसा मौन लिए ,
बेसुध मन अकुलाता है /
शीत -निशा ढलते-ढलते
पागलपन बढ़ जाता है //

आँखें सिन्धु सरीखी हैं ;
तुम बिन मन-घट,चिर प्यासा /
नयन नीर स्वच्छंद  हुआ
मुझसे अब न सहा जाता ///

यह आवेग नहीं थमता
रह रह भीतर ज्वार उठे /
विवश विरह में जीती हूँ
तपता  तन ,अंगार उठे //

योग ध्यान सब हर लेती ,
सुखद मिलन की अभिलाषा /
बढती पीर ,दुखाये मन ,
मुझसे अब न रहा जाता //

Saturday, August 13, 2011

बरगद का पेड़ - पंकज त्रिवेदी

 एक लंबे से 
बरामदे में कमरे आठ
विशाल आँगन में पांच पुत्रों के
परिवार के पिता
बरगद के पेड़ के नीचे
खटिया पर लेटे आराम फरमा रहे थे।

पोते-पोतियाँ   गिल्ली-डंडा खेल रहे थे....
वैसे, इससे ज्यादा सुख
क्या होगा उन्हें, भला

तभी -
तीसरे नंबर का पुत्र
बड़ा सा मछलीघर उठा लाया
बूढ़े पिता को दिखाता हुआ बोला,
कितनी बढ़िया मछलियां हैं, कैसा लगा.....?
पिता बोले -
लग तो रहा है काफी अच्छा, मगर......।

मगर क्या? बेटे ने पूछा
तुमने तो मछलियां कैद कर रखी है

नहीं बाबूजी,
हम तो उन्हें खाना देंगे,
वैसे तो बड़ा-सा है उनका शीशमहल.....
मेरे मुन्ने ने जिद की तो ले आया

अरे भाई,
पिता गमगीन होकर बोले,
उनका यह शीशमहल सागर से बड़ा है क्या?

तब बेटा बोला,
आजादी इतना ही मायने रखती है
आपके लिए
तो....तो ... क्या? निकाल ले भड़ास अपनी....
हमने आजादी के लिए लाठियां खाई हैं
ठीक से जानते हैं हम आजादी को....

तो सुनो....
हम भी चाहते हैं आजादी
अपने घर में... अलग....

पिता की बूढ़ी आँखें
हल्के से नम हुई...
धीरे से बोले -

परिवार तो बरगद की छाँव है
तुम जो ठीक समझो...
खुश रहो, मगर सुनते भी जाओ -
तुम सागर को छोड़ एक्वेरियम में जा रहे हो
अंग्रेजों की लाठी खाई है
और इंगलिश सीखी है उनसे ही...
कभी अपने आपको अकेला महसूस करो
तो...तुम्हारे इसी एक्वेरियम के सामने बैठकर
मछलियों की आंखों में झांकना
पढ़ना उनकी व्यथा को....

बेटा बड़बड़ाता हुआ चला गया
बूढ़ा खटिया पर लेट गया
बरगद के पत्तों से
ठंडी हवा बहने लगी....

Thursday, August 11, 2011

रेशम की डोर (लघुकथा) : कविता वर्मा

 मम्मी मम्मी कल स्कूल में रेशम की राखी बनाना सिखायेंगे ,मुझे रेशम का धागा दिलवा दो ना.
बिटिया की बात सुनकर सीमा अपने बचपन के ख्यालों में खो गयी .दादी ने उसे रेशम के धागे से राखी बनाना सिखाया था .चमकीले रेशम की सुंदर राखी जब उसने सितारों से सजा कर अपने भाई की कलाई पर बाँधी थी तो उसके भाई ने भावावेश में उसे गले लगा लिया था. लेकिन रेशम की डोर में गाँठ टिकती ही नहीं थी .राखी  बार बार खुल जाती और भाई बार बार उसके पास आकर राखी बंधवाता रहा .तब एक बार झुंझलाकर उसने दादी से कहा था -दादी इसकी डोरी बदल दो ना इसमें गाँठ टिकती ही नहीं. 
दादी ने मुस्कुरा कर कहा था -बेटा रेशम की डोर इसीलिए बाँधी जाती है ताकि भाई बहनों के रिश्ते में कभी कोई गाँठ ना टिके .छोटी सी बच्ची सीमा ऐसी बात कहाँ समझ पाती? 
समय बदला हाथ से बनी राखी की जगह बाज़ार में बिकने वाली सुंदर सजीली महँगी  राखियों ने ले ली .अब राखी के दाम के अनुसार उन्हें कलाई पर टिकाये रखने के लिए सूती डोरियाँ और रिबन लगाने लगे .जिसमे मजबूत गाँठ लगती है और राखियाँ लम्बे समय तक कलाई पर टिकी रहती है .
ऐसी ही एक गाँठ सीमा ने अपने मन में भी बाँध ली थी जो समय के साथ सूत की डोरी की गाँठ  सी मजबूत होती जा रही थी .भाई बहन के स्नेह के बीच फंसी वह गाँठ समय के साथ सूत की डोरी की गाँठ सी मजबूत होती जा रही थी .उसकी कसावट और चुभन के बीच भाई बहन का रिश्ता कसमसा रहा था  लेकिन वह गाँठ खुल नहीं पा रही थी. आज बेटी के बहाने उसे राखी का उद्देश्य फिर याद आ गया . 
मम्मी मम्मी बिटिया की आवाज़ सीमा को यथार्थ में  खींच  लाई . में हरी लाल और पीली राखी बनाउंगी . 
हा बेटा  तुम्हे जो भी रंग चाहिए में दिलवाउंगी  ,और एक राखी में भी बनाउंगी .रेशम की डोर वाली अब कहीं और कोई गाँठ नहीं रहने दूँगी .सीमा ने जैसे खुद से कहा और बाज़ार जाने को तैयार होने लगी. 

Wednesday, August 10, 2011

वन्दना गुप्ता की कवितायेँ

(1)
कुछ हिस्सों का पटाक्षेप कभी नहीं होता
सुना था आज
मंगल , शुक्र
बृहस्पति और बुध का
अनोखा संयोग है
आस्मां में चमकेंगे
शाम के धुंधलके में
दो माह तक
मैंने भी बीनने
शुरू कर दिए
अपने हिस्से के दाने
शायद मुझे भी
मेरा सितारा मिल जाये
जो बिछड़ा था
कई जन्म पहले
और जिसे युगों से
मेरी रूह ढूँढ रही है
शायद आज संयोग
बन गया है
शायद आज आस का
दीप फिर जल गया है
शायद आज उम्र जल जाये
और आकाशीय घटना
दिल पर चस्पां हो जाये
इसी आस में कुछ बीज
डाले हैं घड़े में
देखें आकार ले पाती हैं या नहीं
क्या कहा ..........
 ये युतियाँ
खगोलीय होती हैं
तो क्या
हृदयाकाश
बंजर ही रहता है
हाँ , शायद ........
इसीलिए
कुछ हिस्सों का
पटाक्षेप कभी नहीं होता

(2)

दर्द का दरिया

 दर्द को पीने के लिए जीने की कसम खाई हमने
यूँ दर्द की कुछ कीमत चुकाई हमने

जब दर्द के जाम पर जाम लगाए हमने
तब कुछ राहत पायी हमने

दर्द को भी मुकम्मल बनाया हमने
उसे कुछ ऐसे गले लगाया हमने

दर्द और खुद में ना फर्क पाया हमने
यूँ दर्द को आईना दिखाया हमने

(3)  

ठिठकी चांदनी 
चांदनी ठिठकी थी 
इक पल को तेरे आँगन मे
मगर कोई झरोखा 
खुला नही रखा तूने
बता अब दोष किसका है
किस्मत का या चांदनी का
 
कुछ चांदनियां 
उम्र भर दहलीज पर रुकी रहती हैं

(4)
बुलबुले का जीवन क्षणभंगुर होताहै

ख्याली बुलबुलों पर
उड़ान भरती हसरतें
क्या आसमां पाएंगी
राह  में ही
ढह तो नहीं जाएँगी
जब पानी के
बुलबुले का जीवन
क्षणभंगुर होताहै
तो फिर
हवा के बुलबुलों का तो
कोई अस्तित्व ही नहीं
दहलीज पर रुकी रहती हैं

Tuesday, August 9, 2011

पंकज त्रिवेदी की चार लाईन

दोस्त हूँ मैं तुम्हारा यह कहना ही कितना वाजिब हैं यार !
सर नहीं चाहिए, कभी कंधे पे रखने का मौका दिया होता !

दोस्ती पर अच्छा लिखकर वाह वाही लूँट लेती हो तुम,
कभी उसी लिखे पर जीने के लिए गौर फरमाया होता !!
 

Monday, August 1, 2011

प्रवेश सोनी की तीन कविताएँ

1 -      दर्द
*********************

जिद्दी बच्चे की तरह
बैठा हे मन में दर्द,
अपना परिचय देने को
उद्धिग्न हो,
आता हे बार बार चेहरे पर ..
बहने को आतुर हे
अश्रु धारे बन ...

नादां नहीं जनता
कोई नहीं होता परिचित,
सेतु बाँधे, नहीं होता अपना सा
नहीं जानता यह
दिखावे का अपनापा
और बढा देता इसका आकार

बहुत बड़े साये हे इसके
काले, भयावह अंधियारे से ..
दूर करने को इन्हें,
उधार के चंद कतरे, लिए रौशनी के
जाना नहीं,  पर सुना था
रौशनी से ही हारता हे अंधियारा ....
पर केसे ??

यह तो था बड़ा गुढ़ ग्यानी
जानता था,  उधार का उजास
कितने पल का ...!!
दमक कर एक और लकीर
जोड़ देगा मुझमे अंधियारे की ...

सच्ची खुशी का आलोक तो
उमगता हे मन में स्वत ही
जो अब असंभव सा लगता हे ..
क्योकि मरू सा हे मन प्रदेश
चटके पत्थरो की लकीरों में भी
नहीं उगती हे हरी घास
व्यर्थ बितता पल पल
निराधार विचारों के दलदल में
खानाबदोश सी ख्वाहिशे,  तोड़ देती हे

टूटेपन को जोड़ रहा हे
दर्द, अपनेपन से ....
सारे साब –असबाब इसके
सजा कर
दिया विराम चिन्ह
हंसी के आवरण में लपेट
ताकि कोई पहचान कर
ना बढा दे इसका आकार



2-     आवाज़
**********
पुकारती
सर्द आवाज़ ,
चीरती हे कुहांसे को ..
साये निगलने वाली
धुंध .....
चारों और ढाप लेती हे ....

आवाज़ का एक पहलु
भारी वेगवती हवा सा ...,
दूसरा बहुत सूक्ष्म,
उदास पवन की तरह,
पवन से अपने अस्तित्व का
सबुत चुराता हुआ ...

शांय – शांय सी गूंज
होती अरण्य में,
पिघलते शीशे की तरह
उतरती कानो में ......

बार बार झरती होंटो से
पीले पत्तों की तरह
उग आते बोल,
फिर हरे पत्तों से ........

अपनी ही आवाजों
के पीछे भागती
मृग मरीचिका सी
तुम्हे पुकारती हुई
खो देती हू
चाह के भँवर में
अपनी ही आवाज़ .....!!!


3 -     सृष्टा हो गया मीत ....
*********************

मौन अभिव्यक्त हुआ,
साँसे हुई वाचाल .....
समर्पण की साध में
फेले स्नेहिल बाहुपाश ....
रक्ताभ क्षितिज पर
छाया धानी आँचल ...
बेकल चाँद पर बरसे,
बादल के भीगे उच्चारण ...
साँसों की सरगम पर,
गूंजे मनुहारो के गीत ...
अनुबंधों के द्वार खोलकर
उन्मत हो गई प्रीत
अर्पित हुआ मन,
सम्पूर्ण समर्पण में ....
तारे बीन लिए आँचल में
राग –स्वरों की संगत में ....
अपनेपन ने सपनों की
गागर भर ली ...
प्रीत संदर्भो के गीत रचाकर,
सृष्टा हो गया मीत ....