Sunday, August 21, 2011
Wednesday, August 17, 2011
भावना वैदेही की कविता
पढ़ लो प्रिय, मन की भाषा /
मुझसे कुछ ,न कहा जाता //
जाने कैसा मौन लिए ,
बेसुध मन अकुलाता है /
शीत -निशा ढलते-ढलते
पागलपन बढ़ जाता है //
आँखें सिन्धु सरीखी हैं ;
तुम बिन मन-घट,चिर प्यासा /
नयन नीर स्वच्छंद हुआ
मुझसे अब न सहा जाता ///
यह आवेग नहीं थमता
रह रह भीतर ज्वार उठे /
विवश विरह में जीती हूँ
तपता तन ,अंगार उठे //
योग ध्यान सब हर लेती ,
सुखद मिलन की अभिलाषा /
बढती पीर ,दुखाये मन ,
मुझसे अब न रहा जाता //
मुझसे कुछ ,न कहा जाता //
जाने कैसा मौन लिए ,
बेसुध मन अकुलाता है /
शीत -निशा ढलते-ढलते
पागलपन बढ़ जाता है //
आँखें सिन्धु सरीखी हैं ;
तुम बिन मन-घट,चिर प्यासा /
नयन नीर स्वच्छंद हुआ
मुझसे अब न सहा जाता ///
यह आवेग नहीं थमता
रह रह भीतर ज्वार उठे /
विवश विरह में जीती हूँ
तपता तन ,अंगार उठे //
योग ध्यान सब हर लेती ,
सुखद मिलन की अभिलाषा /
बढती पीर ,दुखाये मन ,
मुझसे अब न रहा जाता //
Saturday, August 13, 2011
बरगद का पेड़ - पंकज त्रिवेदी
एक लंबे से
बरामदे में कमरे आठ
विशाल आँगन में पांच पुत्रों के
परिवार के पिता
बरगद के पेड़ के नीचे
खटिया पर लेटे आराम फरमा रहे थे।
पोते-पोतियाँ गिल्ली-डंडा खेल रहे थे....
वैसे, इससे ज्यादा सुख
क्या होगा उन्हें, भला
तभी -
तीसरे नंबर का पुत्र
बड़ा सा मछलीघर उठा लाया
बूढ़े पिता को दिखाता हुआ बोला,
कितनी बढ़िया मछलियां हैं, कैसा लगा.....?
पिता बोले -
लग तो रहा है काफी अच्छा, मगर......।
मगर क्या? बेटे ने पूछा
तुमने तो मछलियां कैद कर रखी है
नहीं बाबूजी,
हम तो उन्हें खाना देंगे,
वैसे तो बड़ा-सा है उनका शीशमहल.....
मेरे मुन्ने ने जिद की तो ले आया
अरे भाई,
पिता गमगीन होकर बोले,
उनका यह शीशमहल सागर से बड़ा है क्या?
तब बेटा बोला,
आजादी इतना ही मायने रखती है
आपके लिए
तो....तो ... क्या? निकाल ले भड़ास अपनी....
हमने आजादी के लिए लाठियां खाई हैं
ठीक से जानते हैं हम आजादी को....
तो सुनो....
हम भी चाहते हैं आजादी
अपने घर में... अलग....
पिता की बूढ़ी आँखें
हल्के से नम हुई...
धीरे से बोले -
परिवार तो बरगद की छाँव है
तुम जो ठीक समझो...
खुश रहो, मगर सुनते भी जाओ -
तुम सागर को छोड़ एक्वेरियम में जा रहे हो
अंग्रेजों की लाठी खाई है
और इंगलिश सीखी है उनसे ही...
कभी अपने आपको अकेला महसूस करो
तो...तुम्हारे इसी एक्वेरियम के सामने बैठकर
मछलियों की आंखों में झांकना
पढ़ना उनकी व्यथा को....
बेटा बड़बड़ाता हुआ चला गया
बूढ़ा खटिया पर लेट गया
बरगद के पत्तों से
ठंडी हवा बहने लगी....
Thursday, August 11, 2011
रेशम की डोर (लघुकथा) : कविता वर्मा
मम्मी मम्मी कल स्कूल में रेशम की राखी बनाना सिखायेंगे ,मुझे रेशम का धागा दिलवा दो ना.
बिटिया की बात सुनकर सीमा अपने बचपन के ख्यालों में खो गयी .दादी ने उसे रेशम के धागे से राखी बनाना सिखाया था .चमकीले रेशम की सुंदर राखी जब उसने सितारों से सजा कर अपने भाई की कलाई पर बाँधी थी तो उसके भाई ने भावावेश में उसे गले लगा लिया था. लेकिन रेशम की डोर में गाँठ टिकती ही नहीं थी .राखी बार बार खुल जाती और भाई बार बार उसके पास आकर राखी बंधवाता रहा .तब एक बार झुंझलाकर उसने दादी से कहा था -दादी इसकी डोरी बदल दो ना इसमें गाँठ टिकती ही नहीं.
दादी ने मुस्कुरा कर कहा था -बेटा रेशम की डोर इसीलिए बाँधी जाती है ताकि भाई बहनों के रिश्ते में कभी कोई गाँठ ना टिके .छोटी सी बच्ची सीमा ऐसी बात कहाँ समझ पाती?
समय बदला हाथ से बनी राखी की जगह बाज़ार में बिकने वाली सुंदर सजीली महँगी राखियों ने ले ली .अब राखी के दाम के अनुसार उन्हें कलाई पर टिकाये रखने के लिए सूती डोरियाँ और रिबन लगाने लगे .जिसमे मजबूत गाँठ लगती है और राखियाँ लम्बे समय तक कलाई पर टिकी रहती है .
ऐसी ही एक गाँठ सीमा ने अपने मन में भी बाँध ली थी जो समय के साथ सूत की डोरी की गाँठ सी मजबूत होती जा रही थी .भाई बहन के स्नेह के बीच फंसी वह गाँठ समय के साथ सूत की डोरी की गाँठ सी मजबूत होती जा रही थी .उसकी कसावट और चुभन के बीच भाई बहन का रिश्ता कसमसा रहा था लेकिन वह गाँठ खुल नहीं पा रही थी. आज बेटी के बहाने उसे राखी का उद्देश्य फिर याद आ गया .
मम्मी मम्मी बिटिया की आवाज़ सीमा को यथार्थ में खींच लाई . में हरी लाल और पीली राखी बनाउंगी .
हा बेटा तुम्हे जो भी रंग चाहिए में दिलवाउंगी ,और एक राखी में भी बनाउंगी .रेशम की डोर वाली अब कहीं और कोई गाँठ नहीं रहने दूँगी .सीमा ने जैसे खुद से कहा और बाज़ार जाने को तैयार होने लगी.
Wednesday, August 10, 2011
वन्दना गुप्ता की कवितायेँ
(1)
कुछ हिस्सों का पटाक्षेप कभी नहीं होता
कुछ हिस्सों का पटाक्षेप कभी नहीं होता
सुना था आज
मंगल , शुक्र
बृहस्पति और बुध का
अनोखा संयोग है
आस्मां में चमकेंगे
शाम के धुंधलके में
दो माह तक
मैंने भी बीनने
शुरू कर दिए
अपने हिस्से के दाने
शायद मुझे भी
मेरा सितारा मिल जाये
जो बिछड़ा था
कई जन्म पहले
और जिसे युगों से
मेरी रूह ढूँढ रही है
शायद आज संयोग
बन गया है
शायद आज आस का
दीप फिर जल गया है
शायद आज उम्र जल जाये
और आकाशीय घटना
दिल पर चस्पां हो जाये
इसी आस में कुछ बीज
डाले हैं घड़े में
देखें आकार ले पाती हैं या नहीं
क्या कहा ..........
ये युतियाँ
खगोलीय होती हैं
तो क्या
हृदयाकाश
बंजर ही रहता है
हाँ , शायद ........
इसीलिए
कुछ हिस्सों का
पटाक्षेप कभी नहीं होता
मंगल , शुक्र
बृहस्पति और बुध का
अनोखा संयोग है
आस्मां में चमकेंगे
शाम के धुंधलके में
दो माह तक
मैंने भी बीनने
शुरू कर दिए
अपने हिस्से के दाने
शायद मुझे भी
मेरा सितारा मिल जाये
जो बिछड़ा था
कई जन्म पहले
और जिसे युगों से
मेरी रूह ढूँढ रही है
शायद आज संयोग
बन गया है
शायद आज आस का
दीप फिर जल गया है
शायद आज उम्र जल जाये
और आकाशीय घटना
दिल पर चस्पां हो जाये
इसी आस में कुछ बीज
डाले हैं घड़े में
देखें आकार ले पाती हैं या नहीं
क्या कहा ..........
ये युतियाँ
खगोलीय होती हैं
तो क्या
हृदयाकाश
बंजर ही रहता है
हाँ , शायद ........
इसीलिए
कुछ हिस्सों का
पटाक्षेप कभी नहीं होता
(2)
दर्द का दरिया
दर्द को पीने के लिए जीने की कसम खाई हमने
यूँ दर्द की कुछ कीमत चुकाई हमने
जब दर्द के जाम पर जाम लगाए हमने
तब कुछ राहत पायी हमने
दर्द को भी मुकम्मल बनाया हमने
उसे कुछ ऐसे गले लगाया हमने
दर्द और खुद में ना फर्क पाया हमने
यूँ दर्द को आईना दिखाया हमने
यूँ दर्द की कुछ कीमत चुकाई हमने
जब दर्द के जाम पर जाम लगाए हमने
तब कुछ राहत पायी हमने
दर्द को भी मुकम्मल बनाया हमने
उसे कुछ ऐसे गले लगाया हमने
दर्द और खुद में ना फर्क पाया हमने
यूँ दर्द को आईना दिखाया हमने
ठिठकी चांदनी
चांदनी ठिठकी थी
इक पल को तेरे आँगन मे
मगर कोई झरोखा
मगर कोई झरोखा
खुला नही रखा तूने
बता अब दोष किसका है
किस्मत का या चांदनी का
बता अब दोष किसका है
किस्मत का या चांदनी का
कुछ चांदनियां
उम्र भर दहलीज पर रुकी रहती हैं
(4)
बुलबुले का जीवन क्षणभंगुर होताहै
ख्याली बुलबुलों पर
उड़ान भरती हसरतें
क्या आसमां पाएंगी
राह में ही
ढह तो नहीं जाएँगी
जब पानी के
बुलबुले का जीवन
क्षणभंगुर होताहै
तो फिर
हवा के बुलबुलों का तो
कोई अस्तित्व ही नहीं
उड़ान भरती हसरतें
क्या आसमां पाएंगी
राह में ही
ढह तो नहीं जाएँगी
जब पानी के
बुलबुले का जीवन
क्षणभंगुर होताहै
तो फिर
हवा के बुलबुलों का तो
कोई अस्तित्व ही नहीं
दहलीज पर रुकी रहती हैं
Tuesday, August 9, 2011
Monday, August 1, 2011
प्रवेश सोनी की तीन कविताएँ
1 - दर्द
*********************
जिद्दी बच्चे की तरह
बैठा हे मन में दर्द,
अपना परिचय देने को
उद्धिग्न हो,
आता हे बार बार चेहरे पर ..
बहने को आतुर हे
अश्रु धारे बन ...
नादां नहीं जनता
कोई नहीं होता परिचित,
सेतु बाँधे, नहीं होता अपना सा
नहीं जानता यह
दिखावे का अपनापा
और बढा देता इसका आकार
बहुत बड़े साये हे इसके
काले, भयावह अंधियारे से ..
दूर करने को इन्हें,
उधार के चंद कतरे, लिए रौशनी के
जाना नहीं, पर सुना था
रौशनी से ही हारता हे अंधियारा ....
पर केसे ??
यह तो था बड़ा गुढ़ ग्यानी
जानता था, उधार का उजास
कितने पल का ...!!
दमक कर एक और लकीर
जोड़ देगा मुझमे अंधियारे की ...
सच्ची खुशी का आलोक तो
उमगता हे मन में स्वत ही
जो अब असंभव सा लगता हे ..
क्योकि मरू सा हे मन प्रदेश
चटके पत्थरो की लकीरों में भी
नहीं उगती हे हरी घास
व्यर्थ बितता पल पल
निराधार विचारों के दलदल में
खानाबदोश सी ख्वाहिशे, तोड़ देती हे
टूटेपन को जोड़ रहा हे
दर्द, अपनेपन से ....
सारे साब –असबाब इसके
सजा कर
दिया विराम चिन्ह
हंसी के आवरण में लपेट
ताकि कोई पहचान कर
ना बढा दे इसका आकार
2- आवाज़
**********
पुकारती
सर्द आवाज़ ,
चीरती हे कुहांसे को ..
साये निगलने वाली
धुंध .....
चारों और ढाप लेती हे ....
आवाज़ का एक पहलु
भारी वेगवती हवा सा ...,
दूसरा बहुत सूक्ष्म,
उदास पवन की तरह,
पवन से अपने अस्तित्व का
सबुत चुराता हुआ ...
शांय – शांय सी गूंज
होती अरण्य में,
पिघलते शीशे की तरह
उतरती कानो में ......
बार बार झरती होंटो से
पीले पत्तों की तरह
उग आते बोल,
फिर हरे पत्तों से ........
अपनी ही आवाजों
के पीछे भागती
मृग मरीचिका सी
तुम्हे पुकारती हुई
खो देती हू
चाह के भँवर में
अपनी ही आवाज़ .....!!!
3 - सृष्टा हो गया मीत ....
*********************
मौन अभिव्यक्त हुआ,
साँसे हुई वाचाल .....
समर्पण की साध में
फेले स्नेहिल बाहुपाश ....
रक्ताभ क्षितिज पर
छाया धानी आँचल ...
बेकल चाँद पर बरसे,
बादल के भीगे उच्चारण ...
साँसों की सरगम पर,
गूंजे मनुहारो के गीत ...
अनुबंधों के द्वार खोलकर
उन्मत हो गई प्रीत
अर्पित हुआ मन,
सम्पूर्ण समर्पण में ....
तारे बीन लिए आँचल में
राग –स्वरों की संगत में ....
अपनेपन ने सपनों की
गागर भर ली ...
प्रीत संदर्भो के गीत रचाकर,
सृष्टा हो गया मीत ....
*********************
जिद्दी बच्चे की तरह
बैठा हे मन में दर्द,
अपना परिचय देने को
उद्धिग्न हो,
आता हे बार बार चेहरे पर ..
बहने को आतुर हे
अश्रु धारे बन ...
नादां नहीं जनता
कोई नहीं होता परिचित,
सेतु बाँधे, नहीं होता अपना सा
नहीं जानता यह
दिखावे का अपनापा
और बढा देता इसका आकार
बहुत बड़े साये हे इसके
काले, भयावह अंधियारे से ..
दूर करने को इन्हें,
उधार के चंद कतरे, लिए रौशनी के
जाना नहीं, पर सुना था
रौशनी से ही हारता हे अंधियारा ....
पर केसे ??
यह तो था बड़ा गुढ़ ग्यानी
जानता था, उधार का उजास
कितने पल का ...!!
दमक कर एक और लकीर
जोड़ देगा मुझमे अंधियारे की ...
सच्ची खुशी का आलोक तो
उमगता हे मन में स्वत ही
जो अब असंभव सा लगता हे ..
क्योकि मरू सा हे मन प्रदेश
चटके पत्थरो की लकीरों में भी
नहीं उगती हे हरी घास
व्यर्थ बितता पल पल
निराधार विचारों के दलदल में
खानाबदोश सी ख्वाहिशे, तोड़ देती हे
टूटेपन को जोड़ रहा हे
दर्द, अपनेपन से ....
सारे साब –असबाब इसके
सजा कर
दिया विराम चिन्ह
हंसी के आवरण में लपेट
ताकि कोई पहचान कर
ना बढा दे इसका आकार
2- आवाज़
**********
पुकारती
सर्द आवाज़ ,
चीरती हे कुहांसे को ..
साये निगलने वाली
धुंध .....
चारों और ढाप लेती हे ....
आवाज़ का एक पहलु
भारी वेगवती हवा सा ...,
दूसरा बहुत सूक्ष्म,
उदास पवन की तरह,
पवन से अपने अस्तित्व का
सबुत चुराता हुआ ...
शांय – शांय सी गूंज
होती अरण्य में,
पिघलते शीशे की तरह
उतरती कानो में ......
बार बार झरती होंटो से
पीले पत्तों की तरह
उग आते बोल,
फिर हरे पत्तों से ........
अपनी ही आवाजों
के पीछे भागती
मृग मरीचिका सी
तुम्हे पुकारती हुई
खो देती हू
चाह के भँवर में
अपनी ही आवाज़ .....!!!
3 - सृष्टा हो गया मीत ....
*********************
मौन अभिव्यक्त हुआ,
साँसे हुई वाचाल .....
समर्पण की साध में
फेले स्नेहिल बाहुपाश ....
रक्ताभ क्षितिज पर
छाया धानी आँचल ...
बेकल चाँद पर बरसे,
बादल के भीगे उच्चारण ...
साँसों की सरगम पर,
गूंजे मनुहारो के गीत ...
अनुबंधों के द्वार खोलकर
उन्मत हो गई प्रीत
अर्पित हुआ मन,
सम्पूर्ण समर्पण में ....
तारे बीन लिए आँचल में
राग –स्वरों की संगत में ....
अपनेपन ने सपनों की
गागर भर ली ...
प्रीत संदर्भो के गीत रचाकर,
सृष्टा हो गया मीत ....
Sunday, July 31, 2011
पूनम दहिया की कविता
दिशाओं के मृदंग
बजने लगे ....
इन्द्रधनुषी रंग
सजने लगे
धरा ने ओढ़ी
चुनरिया धानी
सावन आया संग
ले, नयी जवानी
महके फूल, भ्रमर इतराए
मधुर गीत कोयल ने गाये
झूलों कि लग गयी लम्बी कतारें
नदी उफनती चली तोड़ किनारे
मधुमास कलियों ने मनाया
आसमां का दिल भी धरती पर आया
शंख नाद सुन बादलों का ..
मन के तार ...हो कर झंकृत
देखो खुद ही ...सजने लगे
बजने लगे ....
इन्द्रधनुषी रंग
सजने लगे
धरा ने ओढ़ी
चुनरिया धानी
सावन आया संग
ले, नयी जवानी
महके फूल, भ्रमर इतराए
मधुर गीत कोयल ने गाये
झूलों कि लग गयी लम्बी कतारें
नदी उफनती चली तोड़ किनारे
मधुमास कलियों ने मनाया
आसमां का दिल भी धरती पर आया
शंख नाद सुन बादलों का ..
मन के तार ...हो कर झंकृत
देखो खुद ही ...सजने लगे
Saturday, July 30, 2011
गीता पंडित की कवितायेँ
१
मूक मन के सूने-पथ में ...
....
......
मन के पंछी
को मनाने
आज पल फिर गा रहा,
मूक - मन केसूने
मूक - मन केसूने
पथ में
कौन है जो आ रहा |
कौन से हैं
वेष और ये
कौन सी हैं बोलियाँ,
क्यूँ नहीं
कौन सी हैं बोलियाँ,
क्यूँ नहीं
आती हैं मिलने
मीत मन की टोलियाँ,
मीत मन की टोलियाँ,
मन की बगिया
को सजाता
कौन फिर से भा रहा,
मन के पंछी
को मनाने
आज पल फिर गा रहा |
नेह के
मनके पिरोते
कर रहा मन साधना,
पीर है
कर रहा मन साधना,
पीर है
अंतर में गहरी
कम ना पर आराधना,
कम ना पर आराधना,
कौन है जो
पीर में भी,
मन को बाँधे जा रहा,
मन के पंछी
को मनाने
आज पल फिर गा रहा ।|
.....
२
मैं हूं पथिक प्रेम पथ की ...
....
......
रात अनोखी
मन की पायल भी छमके,
मन मेरा बन
मन की पायल भी छमके,
मन मेरा बन
पाखी डोले
पल में बिजुरिया सी दमके |
पल में बिजुरिया सी दमके |
दूर देश में
पिया बसे हैं
ओ पुरवाई ! लेकर आ,
फिर वंशी की धुन पर कोई
मीठा-मीठा गान सुना |
मीठा-मीठा गान सुना |
मैं हूँ मीरा
प्रीत से ही तो
मेरे मन में मधुबन है ,
ओ परदेसी !
मेरे मन में मधुबन है ,
ओ परदेसी !
बिना तुम्हारे
जीवन भी क्या जीवन है |
जीवन भी क्या जीवन है |
गयीं दर्शन को
अब तो मीते दरस दिखा ,
कहे गोपिका
अब तो मीते दरस दिखा ,
कहे गोपिका
मुझको उधव !
ज्ञान का ना संदेश सिखा |
ज्ञान का ना संदेश सिखा |
मैं हूं पथिक
प्रेम पथ की
दूजा पथ क्या जानूँ मैं ,
प्रेम में कटते
दूजा पथ क्या जानूँ मैं ,
प्रेम में कटते
रैन - दिवस
प्रेम ही ईश्वर मानूँ मैं |
प्रेम ही ईश्वर मानूँ मैं |
सुर एक हम
सब में व्यापित
प्रेम उसकी अभिव्यक्ति है ,
प्रेम परस्पर
प्रेम उसकी अभिव्यक्ति है ,
प्रेम परस्पर
करें सभी से
इससे बङी ना भक्ति है | |
इससे बङी ना भक्ति है | |
........
(गीता पंडित का कविता संग्रह - "मन तुम हरी दूब रहना" से साभार)
Sunday, July 24, 2011
दो ग़ज़ल : श्यामल सुमन
खूबसूरत ये जहाँदिन कटे जब ठीक से तो है इनायत ये जहाँऔर गर्दिश के दिनों में बस क़यामत ये जहाँ रंग चश्मे का है कैसा देखते हैं किस तरह बात लेकिन सच यही कि है मुहब्बत ये जहाँ रोटियाँ भी जब मयस्सर हो नहीं आवाम को और रौनक कुछ घरों में तो अदावत ये जहाँ रात दिन कुछ सरफिरे जो बाँटते हैं खौफ को जब करोड़ों दिल अमन के है सलामत ये जहाँ क्या यहाँ पे खूबसूरत कौन अच्छे लोग हैं चैन हो दिल में सुमन तो खूबसूरत ये जहाँ |
बात वो लिखना ज़रा
भावना का जोश दिल में सीख लो रूकना ज़राहोनजाकत वक्त की तो वक्त पे झुकना ज़रा
जो उठाते जिन्दगी में हर कदम को सोच कर
जिन्दगी आसान बनकर तब लगे अपना ज़रा
लोग तो मजबूर होकर मुस्कुराते आज कल
है सहज मुस्कान पाना क्यों कठिन कहना ज़रा
टूटते तो टूट जाएँ पर सपन जिन्दा रहे
जिन्दगी है तबतलक ही देख फिर सपना ज़रा
दूरियाँ अपनों से प्रायः गैर से नजदीकियाँ
स्वार्थ अपनापन में हो तो दूर ही रहना ज़रा
खेल शब्दों का नहीं अनुभूतियों के संग में
बात लोगों तक जो पहुंचे बात वो लिखना ज़रा
जिन्दगी से रूठ कर के क्या करे हासिल सुमन
अबतलक खुशियाँ मिली जो याद कर चलना ज़रा
Saturday, July 23, 2011
कविता 'किरण'
एक काम वाली बाई..जिसके बिना गृहिणियों की गृहस्थी अधूरी होती है.. उसकी अपनी भी कोई पीड़ा हो सकती है....एक अछूते विषय पर कुछ कहने की...उसकी संवेदना को व्यक्त करने की कोशिश करती हुई एक रचना प्रस्तुत है...
स्वेद नहीं आंसू से तर हूँ मेमसाब
घर के होते भी बेघर हूँ मेमसाब
मैं बाबुल के सर से उतरा बोझ हूँ
साजन के घर का खच्चर हूँ मेमसाब
घरवाले ने कब मुझको मानुस जाना
उसकी खातिर बस बिस्तर हूँ मेमसाब
आज पढ़ा कल फेंका कूड़ेदान में
फटा हुआ बासी पेपर हूँ मेमसाब
कभी कमाकर लाता न फूटी कौड़ी
कहता है धरती बंजर हूँ मेमसाब
उसकी दारु और दवा अपनी करते
बिक जाती चौराहे पर हूँ मेमसाब
आती -जाती खाती तानों के पत्थर
डरा हुआ शीशे का घर हूँ मेमसाब
अपनी और अपनों की भूख मिटाने को
खाती दर-दर की ठोकर हूँ मेमसाब
घर-घर झाड़ू-पोंछा-बर्तन करके भी
रह जाती भूखी अक्सर हूँ मेमसाब
कोई कहता धधे वाली औरत है
पी जाती खारे सागर हूँ मेमसाब
ऐसी- वैसी हूँ चाहे जैसी भी हूँ
नाकारा नर से बेहतर हूँ मेमसाब
स्वेद नहीं आंसू से तर हूँ मेमसाब
घर के होते भी बेघर हूँ मेमसाब
मैं बाबुल के सर से उतरा बोझ हूँ
साजन के घर का खच्चर हूँ मेमसाब
घरवाले ने कब मुझको मानुस जाना
उसकी खातिर बस बिस्तर हूँ मेमसाब
आज पढ़ा कल फेंका कूड़ेदान में
फटा हुआ बासी पेपर हूँ मेमसाब
कभी कमाकर लाता न फूटी कौड़ी
कहता है धरती बंजर हूँ मेमसाब
उसकी दारु और दवा अपनी करते
बिक जाती चौराहे पर हूँ मेमसाब
आती -जाती खाती तानों के पत्थर
डरा हुआ शीशे का घर हूँ मेमसाब
अपनी और अपनों की भूख मिटाने को
खाती दर-दर की ठोकर हूँ मेमसाब
घर-घर झाड़ू-पोंछा-बर्तन करके भी
रह जाती भूखी अक्सर हूँ मेमसाब
कोई कहता धधे वाली औरत है
पी जाती खारे सागर हूँ मेमसाब
ऐसी- वैसी हूँ चाहे जैसी भी हूँ
नाकारा नर से बेहतर हूँ मेमसाब
Thursday, July 21, 2011
पूनम दहिया की दो-कवितायें
(1)
सजा के हसरतों का बाज़ार बैठी हूँ ,
बेचने को सदभावना तैयार बैठी हूँ
मुफ्त बेचती हूँ ,हंसी और ठिठोली
कौड़ी का दाम लेती हूँ ,बेचती हूँ मीठी बोली
खरीदने को कोई है नहीं ,पर बेचती हूँ समानता
...स्वार्थ भरे हाट में लिए मै प्यार बैठी हूँ
खरीददार नहीं कोई ,ये भी जानती हूँ मैं
बिकते हैं घृणा द्वेष ही ज्यादा मानती हूँ मै
सब लगा रहे है बोली बस झूठ और अहंकार की
मै ले के आशा भरे सपने फिर भी भरे बाज़ार बैठी हूँ
आओ लगाओ बोली की बेचती हूँ मीठी बोली
निश्चयों और निष्ठाओं की दुकान है मैंने खोली
भर भी ले मुट्ठियों में ,कि कहीं देर ना हो जाये
मैं खो के भी सब कुछ लुटाने को तैयार बैठी हूँ .......
बेचने को सदभावना तैयार बैठी हूँ
मुफ्त बेचती हूँ ,हंसी और ठिठोली
कौड़ी का दाम लेती हूँ ,बेचती हूँ मीठी बोली
खरीदने को कोई है नहीं ,पर बेचती हूँ समानता
...स्वार्थ भरे हाट में लिए मै प्यार बैठी हूँ
खरीददार नहीं कोई ,ये भी जानती हूँ मैं
बिकते हैं घृणा द्वेष ही ज्यादा मानती हूँ मै
सब लगा रहे है बोली बस झूठ और अहंकार की
मै ले के आशा भरे सपने फिर भी भरे बाज़ार बैठी हूँ
आओ लगाओ बोली की बेचती हूँ मीठी बोली
निश्चयों और निष्ठाओं की दुकान है मैंने खोली
भर भी ले मुट्ठियों में ,कि कहीं देर ना हो जाये
मैं खो के भी सब कुछ लुटाने को तैयार बैठी हूँ .......
(2)
ज़िंदगी कुछ यूँ हम बिताते चले गए
कभी वो रूठे हम से
कभी हम मनाते चले गए
दर्द था या यादें थी तेरी
हम तो बस आंसूं बहते चले गए
दूर थी मंजिल मेरी
और थके से थे कदम
फिर भी देने साथ तेरा
कन्धों को मिलते चले गए
ज़ख्म तो गहरे थे
पर फिर भी हम को आस थी
हर घडी देती थी आहट ,
,अनबुझी हर एक प्यास थी
और तेरे आने की धुन में
सी के अपने होठों को
सीख लिया हमने भी देखो जीना
और बिना कहे सुने अपने जख्मों को सीना
हम करते रहे इंतजार यूँ ही की आओगे कभी
और बेखबर से तुम बस दिल को सताते चले गए
ज़िंदगी हम ....
कभी वो रूठे हम से
कभी हम मनाते चले गए
दर्द था या यादें थी तेरी
हम तो बस आंसूं बहते चले गए
दूर थी मंजिल मेरी
और थके से थे कदम
फिर भी देने साथ तेरा
कन्धों को मिलते चले गए
ज़ख्म तो गहरे थे
पर फिर भी हम को आस थी
हर घडी देती थी आहट ,
,अनबुझी हर एक प्यास थी
और तेरे आने की धुन में
सी के अपने होठों को
सीख लिया हमने भी देखो जीना
और बिना कहे सुने अपने जख्मों को सीना
हम करते रहे इंतजार यूँ ही की आओगे कभी
और बेखबर से तुम बस दिल को सताते चले गए
ज़िंदगी हम ....
Wednesday, July 20, 2011
बेकल है आज दुनिया : श्यामल सुमन
कैसी अजीब दुनिया इन्सान के लिए
महफूज अब मुकम्मल हैवान के लिए
कातिल जो बेगुनाह सा जीते हैं शहर में
इन्सान कौन चुनता सम्मान के लिए
मिलते हैं लोग जितने चेहरे पे शिकन है
आँखें तरस गयीं हैं मुस्कान के लिए
पानी ख़तम हुआ है लोगों की आँख का
बेकल है आज दुनिया ईमान के लिए
किस आईने से देखूँ हालात आज के
कुछ तो सुमन से कह दो संधान के लिए
Monday, July 18, 2011
यादगार शाम : संजय मिश्रा 'हबीब'
याद है मुझे
गोधुली का खुशनुमा माहौल
अधखिली कलियों को
गा गा कर छेड़ते
शरारती भंवरे,
और जाने शर्म से
या परेशान होकर
इधर उधर डोलती कलियाँ....
सुदूर दृगसीमा तक फैले
हरे पीले लहलहाते खेत.
छन छन करती, खुशबू उडाती
धान की स्वर्णिम बालियाँ...
नीडों की ओर लौटते
नन्हें नन्हें पक्षियों की
लुभावनी कतारें,
निकट ही
पनघट पर महकती
ग्राम्य गीतों की अल्हड बहारें...
आम्र वृक्ष तले
मंत्रमुग्ध अधलेटा सा मैं,
और धीरे धीरे गुनगुनाती
मेरे बालों में कंघी सी करती तुम....
आह! सचमुच!!
कितनी मधुर शाम थी वह,
“मेरे प्यारे से गाँव की प्यारी बयार”
मैं नहीं भुला सकता तुम्हें....
कभी नहीं....!!!
Sunday, July 17, 2011
"विश्वगाथा" (शब्द मंगल) का नम्र निवेदन और रंजना फतेपुरकर की कविता- 'सीप का मोती'
"विश्वगाथा के सभी दोस्तों,
सुप्रभात... बड़े खेद के साथ कहना पड़ता हैं कि "विश्वगाथा" पिछले कुछ दिनों से हैक हो गया था | भरसक कोशिश के बावजूद कुछ नहीं हो पाया | ऐसे समय हमारे सह सम्पादक श्री नरेन्द्र व्यास जी भी विशेष जिम्मेदारियों के बावजूद पूर्ण सहयोग देते रहे हैं, यही खुशी हैं |
"विश्वगाथा" का बड़ा परीवार हैं, उन सभी को एक कष्ट दे रहा हूँ | अब "विश्वगाथा" का नया संस्करण "शब्द मंगल" के नाम से आप तक पहुंचा रहा हूँ | उम्मींद हैं कि आप इस कष्ट को भी झेल लेंगे | मगर आप सभी का स्नेह अब भी बना रहेगा |
जीवन के राह में जब आप सही गति और सही मार्ग पर भी चलने लगते हैं तो भी अवरोध आयेंगे ही | हमने तो अपनी मस्ती में रहकर उसी सही मार्ग पर अग्रेसर होना हैं | आप सभी के आशीर्वाद और स्नेह के कच्चे धागे से बंधा हूँ और मैं कभी भी मोक्ष नहीं चाहता...आपका अपना, - पंकज त्रिवेदी
सागर की मचलती लहरें
अगर चाँद को छू जाएँ
या कोई भीगी सी याद
तुम्हारी आँखों में आंसू
बन छलक जाये
रख देंगे उन आसुओं को
सीप में संजो कर
ताकि आंसू तुम्हारे
प्यार के मोतियों में बदल जाएँ
चन्दन सी महक कोई
अगर साँसों को छू जाये
मोरपंखों से झरते रंग
अगर आँचल भिगो जाएँ
रख देंगे उन रंगों को
पलकों में संजोकर
ताकि उन रंगों से
तुम्हारे जीवन में
इन्द्रधनुष छलक जाये
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संपर्क : ३ उत्कर्ष विहार, मानिशपुरी, इंदौर मो 9893034331
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