1 - दर्द
*********************
जिद्दी बच्चे की तरह
बैठा हे मन में दर्द,
अपना परिचय देने को
उद्धिग्न हो,
आता हे बार बार चेहरे पर ..
बहने को आतुर हे
अश्रु धारे बन ...
नादां नहीं जनता
कोई नहीं होता परिचित,
सेतु बाँधे, नहीं होता अपना सा
नहीं जानता यह
दिखावे का अपनापा
और बढा देता इसका आकार
बहुत बड़े साये हे इसके
काले, भयावह अंधियारे से ..
दूर करने को इन्हें,
उधार के चंद कतरे, लिए रौशनी के
जाना नहीं, पर सुना था
रौशनी से ही हारता हे अंधियारा ....
पर केसे ??
यह तो था बड़ा गुढ़ ग्यानी
जानता था, उधार का उजास
कितने पल का ...!!
दमक कर एक और लकीर
जोड़ देगा मुझमे अंधियारे की ...
सच्ची खुशी का आलोक तो
उमगता हे मन में स्वत ही
जो अब असंभव सा लगता हे ..
क्योकि मरू सा हे मन प्रदेश
चटके पत्थरो की लकीरों में भी
नहीं उगती हे हरी घास
व्यर्थ बितता पल पल
निराधार विचारों के दलदल में
खानाबदोश सी ख्वाहिशे, तोड़ देती हे
टूटेपन को जोड़ रहा हे
दर्द, अपनेपन से ....
सारे साब –असबाब इसके
सजा कर
दिया विराम चिन्ह
हंसी के आवरण में लपेट
ताकि कोई पहचान कर
ना बढा दे इसका आकार
2- आवाज़
**********
पुकारती
सर्द आवाज़ ,
चीरती हे कुहांसे को ..
साये निगलने वाली
धुंध .....
चारों और ढाप लेती हे ....
आवाज़ का एक पहलु
भारी वेगवती हवा सा ...,
दूसरा बहुत सूक्ष्म,
उदास पवन की तरह,
पवन से अपने अस्तित्व का
सबुत चुराता हुआ ...
शांय – शांय सी गूंज
होती अरण्य में,
पिघलते शीशे की तरह
उतरती कानो में ......
बार बार झरती होंटो से
पीले पत्तों की तरह
उग आते बोल,
फिर हरे पत्तों से ........
अपनी ही आवाजों
के पीछे भागती
मृग मरीचिका सी
तुम्हे पुकारती हुई
खो देती हू
चाह के भँवर में
अपनी ही आवाज़ .....!!!
3 - सृष्टा हो गया मीत ....
*********************
मौन अभिव्यक्त हुआ,
साँसे हुई वाचाल .....
समर्पण की साध में
फेले स्नेहिल बाहुपाश ....
रक्ताभ क्षितिज पर
छाया धानी आँचल ...
बेकल चाँद पर बरसे,
बादल के भीगे उच्चारण ...
साँसों की सरगम पर,
गूंजे मनुहारो के गीत ...
अनुबंधों के द्वार खोलकर
उन्मत हो गई प्रीत
अर्पित हुआ मन,
सम्पूर्ण समर्पण में ....
तारे बीन लिए आँचल में
राग –स्वरों की संगत में ....
अपनेपन ने सपनों की
गागर भर ली ...
प्रीत संदर्भो के गीत रचाकर,
सृष्टा हो गया मीत ....
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जिद्दी बच्चे की तरह
बैठा हे मन में दर्द,
अपना परिचय देने को
उद्धिग्न हो,
आता हे बार बार चेहरे पर ..
बहने को आतुर हे
अश्रु धारे बन ...
नादां नहीं जनता
कोई नहीं होता परिचित,
सेतु बाँधे, नहीं होता अपना सा
नहीं जानता यह
दिखावे का अपनापा
और बढा देता इसका आकार
बहुत बड़े साये हे इसके
काले, भयावह अंधियारे से ..
दूर करने को इन्हें,
उधार के चंद कतरे, लिए रौशनी के
जाना नहीं, पर सुना था
रौशनी से ही हारता हे अंधियारा ....
पर केसे ??
यह तो था बड़ा गुढ़ ग्यानी
जानता था, उधार का उजास
कितने पल का ...!!
दमक कर एक और लकीर
जोड़ देगा मुझमे अंधियारे की ...
सच्ची खुशी का आलोक तो
उमगता हे मन में स्वत ही
जो अब असंभव सा लगता हे ..
क्योकि मरू सा हे मन प्रदेश
चटके पत्थरो की लकीरों में भी
नहीं उगती हे हरी घास
व्यर्थ बितता पल पल
निराधार विचारों के दलदल में
खानाबदोश सी ख्वाहिशे, तोड़ देती हे
टूटेपन को जोड़ रहा हे
दर्द, अपनेपन से ....
सारे साब –असबाब इसके
सजा कर
दिया विराम चिन्ह
हंसी के आवरण में लपेट
ताकि कोई पहचान कर
ना बढा दे इसका आकार
2- आवाज़
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पुकारती
सर्द आवाज़ ,
चीरती हे कुहांसे को ..
साये निगलने वाली
धुंध .....
चारों और ढाप लेती हे ....
आवाज़ का एक पहलु
भारी वेगवती हवा सा ...,
दूसरा बहुत सूक्ष्म,
उदास पवन की तरह,
पवन से अपने अस्तित्व का
सबुत चुराता हुआ ...
शांय – शांय सी गूंज
होती अरण्य में,
पिघलते शीशे की तरह
उतरती कानो में ......
बार बार झरती होंटो से
पीले पत्तों की तरह
उग आते बोल,
फिर हरे पत्तों से ........
अपनी ही आवाजों
के पीछे भागती
मृग मरीचिका सी
तुम्हे पुकारती हुई
खो देती हू
चाह के भँवर में
अपनी ही आवाज़ .....!!!
3 - सृष्टा हो गया मीत ....
*********************
मौन अभिव्यक्त हुआ,
साँसे हुई वाचाल .....
समर्पण की साध में
फेले स्नेहिल बाहुपाश ....
रक्ताभ क्षितिज पर
छाया धानी आँचल ...
बेकल चाँद पर बरसे,
बादल के भीगे उच्चारण ...
साँसों की सरगम पर,
गूंजे मनुहारो के गीत ...
अनुबंधों के द्वार खोलकर
उन्मत हो गई प्रीत
अर्पित हुआ मन,
सम्पूर्ण समर्पण में ....
तारे बीन लिए आँचल में
राग –स्वरों की संगत में ....
अपनेपन ने सपनों की
गागर भर ली ...
प्रीत संदर्भो के गीत रचाकर,
सृष्टा हो गया मीत ....
वाह!! तीनों रचनाओं में घनीभूत भावों का बेहतरीन संयोजन किया है प्रवेश सोनी जी ने...
ReplyDeleteसादर बधाई... आभार शब्द्मंगल....
तीनो रचनाओं में गहन भावों की अभिव्यक्ति सुन्दर भाव एवं शब्द संयोजन ..
ReplyDeleteप्रवेश सोनी जी को अपार शुभ कामनाएं !!!