Saturday, July 23, 2011

कविता 'किरण'

एक काम वाली बाई..जिसके बिना गृहिणियों की गृहस्थी अधूरी होती है.. उसकी अपनी भी कोई पीड़ा हो सकती है....एक अछूते विषय पर कुछ कहने की...उसकी संवेदना को व्यक्त करने की कोशिश करती हुई एक रचना प्रस्तुत है...

स्वेद नहीं आंसू से तर हूँ मेमसाब
घर के होते भी बेघर हूँ मेमसाब

मैं बाबुल के सर से उतरा बोझ हूँ
साजन के घर का खच्चर हूँ मेमसाब

घरवाले ने कब मुझको मानुस जाना
उसकी खातिर बस बिस्तर हूँ मेमसाब

आज पढ़ा कल फेंका कूड़ेदान में
फटा हुआ बासी पेपर हूँ मेमसाब

कभी कमाकर लाता न फूटी कौड़ी
कहता है धरती बंजर हूँ मेमसाब

उसकी दारु और दवा अपनी करते
बिक जाती चौराहे पर हूँ मेमसाब

आती -जाती खाती तानों के पत्थर

डरा हुआ शीशे का घर हूँ मेमसाब

अपनी और अपनों की भूख मिटाने को
खाती दर-दर की ठोकर हूँ मेमसाब

घर-घर झाड़ू-पोंछा-बर्तन करके भी
रह जाती भूखी अक्सर हूँ मेमसाब

कोई कहता धधे वाली औरत है
पी जाती खारे सागर हूँ मेमसाब

ऐसी- वैसी हूँ चाहे जैसी भी हूँ
नाकारा नर से बेहतर हूँ मेमसाब

4 comments:

  1. बहुत शिद्दत से अभिव्यक्त हुई हैं एक 'अनछुए विषय' की संवेदनाएं...
    चौंकाती हैं, बाँध कर रोक लेती हैं वार्तालापी पंक्तियाँ...
    "आती -जाती खाती तानों के पत्थर
    डरा हुआ शीशे का घर हूँ मेमसाब"

    सादर...

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  2. Gharon mein kaam karne vaali baion ki andruni bhavanaaon ki sunder abhivyakti

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  3. ऐसी- वैसी हूँ चाहे जैसी भी हूँ
    नाकारा नर से बेहतर हूँ मेमसाब
    ....waah! baat-baat mein bilkul sachi baat nikal gayee.
    sundar prastuti hetu aabhar!

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  4. मार्मिक अन्तः स्थल को स्पर्श करती यथार्थ परक संवेदना की अभिव्यक्ति ...नकारा नर से बेहतर ..कर्मयोगी ऐसी कर्मठ नारी का हार्दिक अभिनन्दन !!
    कविता किरण जी शुभकामनाएं !!!

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